New Delhi: भारत का सुप्रीम कोर्ट अक्सर दलितों के अधिकारों की रक्षा पर जोर देता आया है। हाल ही में आई एक स्टडी में चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। मेलबर्न यूनिवर्सिटी की रिसर्च के मुताबिक, अदालत ने अपने फैसलों में जिस भाषा का इस्तेमाल किया है, वह कई बार जातिगत भेदभाव को दर्शाती है। आजादी के बाद से अब तक के कई फैसलों में दलितों के लिए इस्तेमाल शब्द उनकी मर्यादा को ठेस पहुंचाने वाले रहे हैं। यह रिपोर्ट 75 वर्षों के अदालती फैसलों की समीक्षा पर आधारित है। इसमें पाया गया कि प्रगतिशील फैसलों के बावजूद, जजों की शब्दावली में पुराने पूर्वाग्रह मौजूद थे।
75 वर्षों के संवैधानिक फैसलों की जांच
यह स्टडी 1950 से लेकर 2025 तक की संवैधानिक बेंचों के फैसलों पर आधारित है। इन फैसलों को पांच या उससे अधिक जजों की बेंच ने सुनाया है। मेलबर्न लॉ स्कूल की प्रोफेसर फराह अहमद इस रिसर्च की सह-लेखिका हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ये फैसले कानूनी मिसाल बनते हैं और लॉ स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं। ऐसे में इनमें इस्तेमाल भाषा का समाज पर गहरा असर पड़ता है। रिसर्च में पाया गया कि कई बार दलित अधिकारों का समर्थन करते हुए भी जजों ने ‘अपमानजनक या असंवेदनशील’ शब्दों का प्रयोग किया।
फैसलों में जानवरों और विकलांगता से तुलना
स्टडी में कुछ बेहद गंभीर उदाहरण दिए गए हैं। कुछ फैसलों में जातिगत उत्पीड़न की तुलना शारीरिक विकलांगता से की गई। इससे यह संदेश गया कि प्रताड़ित या विकलांग लोग स्वाभाविक रूप से कमजोर होते हैं।
- घोड़ों से तुलना: कुछ जजों ने अपने फैसलों में दलितों को ‘साधारण घोड़े’ और उच्च जातियों को ‘फर्स्ट क्लास दौड़ने वाले घोड़े’ बताया।
- आरक्षण पर टिप्पणी: आरक्षण जैसे सकारात्मक कदमों (Affirmative Action) को कुछ जजों ने “बैसाखियाँ” कहा। उन्होंने तर्क दिया कि दलितों को ज्यादा समय तक इन पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
- जाति और काम: कुछ जजों ने जाति व्यवस्था को नुकसानदेह मानने के बजाय इसे केवल काम के बंटवारे की व्यवस्था माना।
पिछड़ेपन और शिक्षा को लेकर पूर्वाग्रह
रिसर्च में पाया गया कि अदालतों ने अक्सर जातिगत भेदभाव मिटाने की पूरी जिम्मेदारी दलितों पर ही डाल दी। यह माना गया कि केवल शिक्षा ही जाति को खत्म कर सकती है। यह सोच उन सामाजिक बाधाओं को नजरअंदाज करती है जो दलितों को नौकरी और व्यापार से दूर रखती हैं। साल 2020 के एक फैसले का जिक्र करते हुए रिपोर्ट कहती है कि जनजातियों के जीवन को ‘आदिम’ बताया गया। कोर्ट ने कहा कि उन्हें मुख्यधारा के कानूनों के योग्य बनाने के लिए मदद की जरूरत है। प्रोफेसर अहमद के अनुसार, यह भाषा अन्यायपूर्ण रूढ़ियों को मजबूत करती है।
जजों की मंशा और सुधार की जरूरत
पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर ने बीबीसी को बताया कि अदालतों की मंशा गलत नहीं होती, लेकिन वे बदलती भाषा से पूरी तरह अवगत नहीं होते। प्रोफेसर अहमद भी मानती हैं कि जजों का इरादा दलितों को नीचा दिखाने का नहीं था। यह भाषा उनके गहरे बैठे पूर्वाग्रहों को दिखाती है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ‘हैंडबुक ऑन कॉम्बैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स’ जारी की थी। इसका उद्देश्य महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी भाषा को बदलना था। विशेषज्ञ मानते हैं कि अब जाति से जुड़े शब्दों के लिए भी ऐसे ही आत्ममंथन की जरूरत है।
कोर्ट में दलित प्रतिनिधित्व का अभाव
रिसर्च में न्यायपालिका में विविधता की कमी को भी एक बड़ा कारण माना गया है। अनुमान के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट में अब तक केवल आठ दलित जज ही नियुक्त हुए हैं। पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन पहले दलित सीजेआई थे। उन्होंने जाति को एक “अटूट बंधन” बताया था, जो व्यक्ति का पीछा कभी नहीं छोड़ता। शोधकर्ताओं का कहना है कि न्यायपालिका में उत्पीड़ित जातियों की भागीदारी बढ़ने से नजरिए में बदलाव आएगा। यह रिपोर्ट दुनिया की सबसे ताकतवर अदालतों में से एक के लिए सुधार का अवसर है।
