शुक्रवार, दिसम्बर 19, 2025

भारत में स्कूली शिक्षा: 2025 में पहली से बारहवीं तक का खर्च पहुंचा 22 लाख रुपये तक

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National News: भारत में स्कूली शिक्षा की बढ़ती लागत ने मध्यमवर्गीय परिवारों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। चार्टर्ड अकाउंटेंट और शिक्षिका मीनल गोयल के एक लिंक्डइन पोस्ट के अनुसार, एक बच्चे को पहली से बारहवीं कक्षा तक पढ़ाने का कुल खर्च अब लगभग 22 लाख रुपये तक पहुंच गया है। इस पोस्ट ने देश भर में शिक्षा की उछलती कीमतों पर नई बहस छेड़ दी है। माता-पिता के लिए यह खर्च वहन करना अब एक बड़ी चुनौती बन गया है।

मीनल गोयल ने 2025 के आंकड़ों के आधार पर एक विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने एक ठीक-ठाक स्कूल में पढ़ाई का अनुमानित खर्च बताया है। प्राथमिक स्कूल यानी कक्षा एक से पांच तक का खर्च लगभग 5.75 लाख रुपये आता है। मिडिल स्कूल यानी कक्षा छह से आठ तक का खर्च करीब 5.9 लाख रुपये है। हाई स्कूल यानी कक्षा नौ से बारह तक की शिक्षा पर 9.2 लाख रुपये खर्च होंगे।

बुनियादी खर्च के अलावा अन्य लागत

मीनल गोयल केअनुसार यह आंकड़ा केवल स्कूल की फीस का नहीं है। इस कुल राशि में किताबें, वर्दी, ट्यूशन और परिवहन का खर्च शामिल है। गैजेट्स और कोचिंग क्लासेज का खर्च भी इसी में जुड़ जाता है। उन्होंने कहा कि प्रीमियम श्रेणी के स्कूलों में यह खर्च दोगुना तक हो सकता है। 2025 में भारत में स्कूली शिक्षा की वास्तविक लागत वाकई डरावनी है।

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उन्होंने यह भी बताया कि स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि कई अभिभावक अब अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतराने लगे हैं। यह फैसला शिक्षा में विश्वास की कमी के कारण नहीं है। यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे इस भारी भरकम खर्च का भुगतान नहीं कर सकते। आज का मध्यमवर्ग बच्चों की पढ़ाई के लिए कर्ज ले रहा है या अपनी बुनियादी जरूरतों में कटौती कर रहा है।

आधिकारिक आंकड़ों से मिलता है समर्थन

नेशनल सैंपल सर्वेऑफिस की 2024 की एक रिपोर्ट गोयल के दावों की पुष्टि करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक दशक में शहरी निजी स्कूलों की फीस में 169 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह दर वेतन वृद्धि और महंगाई दर से कहीं अधिक है। इससे परिवारों के बजट पर अतिरिक्त दबाव पैदा हुआ है। शिक्षा पर खर्च अब परिवारों की सबसे बड़ी लागत बन गई है।

दिल्ली, बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे बड़े महानगरों में फीस में सबसे ज्यादा उछाल देखा गया है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, 81 प्रतिशत अभिभावकों ने 10 प्रतिशत या अधिक की फीस वृद्धि का सामना किया है। 22 प्रतिशत अभिभावकों ने तो 30 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी झेली है। हालांकि कुछ राज्यों में फीस नियंत्रण के नियम हैं, लेकिन कई स्कूल अन्य शुल्क लगाकर इन नियमों को दरकिनार कर देते हैं।

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गुणवत्ता और खर्च के बीच असंतुलन

आज भारतीय परिवार विकसित देशोंजितनी फीस चुका रहे हैं। लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर पर अब भी सवालिया निशान बना हुआ है। अधिकांश माता-पिता को लगता है कि उनके द्वारा दी जाने वाली फीस का सही मूल्य नहीं मिल पा रहा है। शिक्षा के बाजारीकरण ने इस समस्या को और गहरा कर दिया है। स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव भी एक बड़ी समस्या है।

इस संकट का सबसे बड़ा असर देश के भविष्य यानी बच्चों पर पड़ रहा है। कई प्रतिभाशाली बच्चे उचित शिक्षा के अभाव में पीछे रह जाते हैं। शिक्षा का अधिकार अब महंगी वस्तु बनता जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस दिशा में ठोस नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है। सरकार और नियामक संस्थाओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

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