Jammu And Kashmir News: बांडीपोरा जिले के गुरेज क्षेत्र के छोटे से गांव किल्शे में एक अद्भुत उपलब्धि हासिल हुई है। यहां रहने वाले स्व-शिक्षित सुलेखक मुस्तफा इब्नी जमील ने दुनिया की सबसे लंबी हस्तलिखित हदीस पांडुलिपि तैयार की है। यह अनोखी पांडुलिपि पूरी तरह खुलने पर 1.3 किलोमीटर तक फैलती है। मुस्तफा ने इस कार्य को पूरा करने में कई वर्षों तक अथक परिश्रम किया है।
एक कलाकार का अद्वितीय सफर
मुस्तफा इब्नी जमील ने बिना किसी औपचारिक शिक्षा के इस कला में महारत हासिल की। उन्होंने न तो किसी शिक्षक से सीखा और न ही किसी ऑनलाइन कोर्स का सहारा लिया। उनका प्रशिक्षण पुरानी किताबों और ऐतिहासिक पांडुलिपियों को पढ़ने और उनका विश्लेषण करने से हुआ। उन्होंने हर अक्षर के आकार, वजन और अनुपात का गहन अध्ययन किया। यह सुलेख के प्रति उनके गहरे प्रेम और समर्पण को दर्शाता है।
पांडुलिपि का विशाल स्वरूप
यह असाधारण दस्तावेज 135 जीएसएम आर्ट-ग्रेड पेपर पर बनाया गया है। इसकी चौड़ाई 14.5 इंच है। इसमें अल-मुवाजा से हदीस की हजारों पंक्तियां अत्यंत सुंदर अरबी सुलेख में लिखी गई हैं। मुस्तफा ने इसकी संरचना और ऐतिहासिक महत्व के कारण इब्न-ए-कासिम के प्रसारण को चुना। कागज का विशाल रोल दिल्ली से मंगवाया गया था, जिसका वजन तीन क्विंटल से अधिक था।
अथक परिश्रम और अदम्य धैर्य
इस विशालकाय कृति को बनाने में अविश्वसनीय समय और धैर्य लगा। केवल 108 मीटर के हिस्से को लैमिनेट करने में ही उन्हें छह महीने लगे। इस दौरान वे प्रतिदिन अठारह घंटे लगातार लिखते रहे। उनकी लेखन प्रक्रिया में कोई जोड़ या कटाई नहीं है। यह स्याही और कागज का एक निरंतर और अबाधित प्रवाह है। यह एक ऐसा अनुशासन है जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
संरक्षण और भविष्य की योजना
अभी तक इस पूरी पांडुलिपि को प्रदर्शित नहीं किया गया है। केवल 108 मीटर का हिस्सा ही संरक्षण के बाद प्रदर्शन के लिए तैयार है। शेष हिस्से को बेहद सावधानी से लपेटकर रखा गया है। मुस्तफा का मानना है कि इसे सार्वजनिक करने से पहले उचित संरक्षण अत्यंत जरूरी है। एक बार पूरी तरह से लैमिनेट हो जाने के बाद ही इसे पूर्ण रूप में प्रस्तुत किया जाएगा।
एक व्यक्तिगत मिशन की परिणति
मुस्तफा के लिए यह प्रोजेक्ट महज लिखने का काम नहीं था। यह एक मिशन था। शुरुआत उनकी अपनी लिखावट सुधारने की एक साधारण कोशिश के तौर पर हुई। लेकिन यह धीरे-धीरे ज्ञान को संरक्षित करने के एक उद्देश्य में बदल गया। उनका मानना है कि ये ग्रंथ हमारी विरासत का अमूल्य हिस्सा हैं। उन्हें सही ढंग से लिखकर और सुरक्षित रखकर ही सदियों तक जीवित रखा जा सकता है।
आधिकारिक मान्यता और आंतरिक संतुष्टि
उनके इस कार्य को आधिकारिक मान्यता भी मिल चुकी है। लिंकन बोर्ड ने सभी आवश्यक दस्तावेजों और वीडियो साक्ष्यों की जांच के बाद इसे मंजूरी दी है। हालांकि मुस्तफा के लिए सरकारी प्रमाणपत्र से ज्यादा महत्वपूर्ण उनकी आंतरिक संतुष्टि है। उन्हें प्रेरणा इस बात से मिलती है कि वे इस्लामी विद्वता की निरंतरता में अपना योगद दे रहे हैं।
कश्मीर में सुलेख की समृद्ध परंपरा
कश्मीर घाटी में सुलेख की कला का एक लंबा और गौरवशाली इतिहास रहा है। यह कला यहां के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग रही है। दरगाहों पर बने शिलालेखों से लेकर हाथ से लिखे गए पुराने कुरान इसके प्रमाण हैं। इसने लेखकों और कलाकारों की एक पूरी परंपरा को जन्म दिया है। मुस्तफा का कार्य इसी परंपरा की एक कड़ी है।
एक लुप्त होती कला का संरक्षण
आधुनिक डिजिटल युग में हस्तलिखित कला का चलन तेजी से कम हो रहा है। डिजिटल प्रिंटिंग और बड़े पैमाने पर उत्पादित धार्मिक ग्रंथों ने इस पारंपरिक कला को पीछे छोड़ दिया है। पवित्र ग्रंथों को हाथ से लिखने की यह कला अब लगभग लुप्त होने के कगार पर है। मुस्तफा जैसे लोग इस प्राचीन विरासत को बचाने का प्रयास कर रहे हैं।
कला के प्रति एकनिष्ठ समर्पण
मुस्तफा का जीवन कला के प्रति समर्पण की एक मिसाल है। एक गर्मी की सुबह भी वे लकड़ी की लंबी मेज पर बैठे दिखाई देते हैं। उनकी उंगलियां काली स्याही से सनी रहती हैं। उनकी आंखें एकाग्रता से सिकुड़ी होती हैं। घंटों की निरंतर लेखन के बाद भी उनका शरीर स्थिर और ध्यान केंद्रित रहता है। यह दृश्य एक कलाकार की निष्ठा और अनुशासन को चित्रित करता है।
