मुसलमानों को बहुविवाह की इजाजत देने वाले मुस्लिम पर्सनल लॉ के कानूनी प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती दी गई है। याचिका में मुसलमानों को बहुविवाह की इजाजत देने वाले अप्लीकेशन एक्ट 1937 की धारा 2 को रद करने की मांग की गई है। याचिका में मांग की गई है कि सुप्रीम कोर्ट बहुविवाह को अतार्किक, महिलाओं के साथ भेदभाव पूर्ण और अनुच्छेद 14 तथा 15(1) का उल्लंघन घोषित करे। याचिका में यह भी कहा गया है कि धर्म के आधार पर दंड के प्रावधान भिन्न नहीं हो सकते।
वकील हरिशंकर जैन और विष्णु शंकर जैन के जरिए यह याचिका जनउद्घोष संस्थान और पांच महिलाओं ने दाखिल की है। याचिका में कहा गया है कि आइपीसी की धारा 494 कहती है कि अगर कोई व्यक्ति पति या पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करता है तो वह शादी शून्य मानी जाएगी और ऐसी शादी करने वाले को सात साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है।
इस धारा के मुताबिक पति पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करना दंडनीय अपराध है और दूसरी शादी शून्य मानी जाती है। इसका मतलब है कि दूसरी शादी की मान्यता पर्सनल ला पर आधारित है। कहा गया है कि हिन्दू, ईसाई और पारसी कानून में बहुविवाह की इजाजत नहीं है जबकि मुसलमानों में चार शादियों तक की इजाजत है। कहा गया है कि अगर हिन्दू, ईसाई या पारसी जीवनसाथी के रहते दूसरी शादी करते हैं तो आईपीसी की धारा 494 में दंडनीय है जबकि मुसलमान का दूसरी शादी करना दंडनीय नहीं है। ऐसे में आइपीसी की धारा 494 धर्म के आधार पर भेदभाव करती है जो कि संविधान के अनुच्छेद 14 व 15(1) के तहत मिले बराबरी के अधिकार का उल्लंघन है।