Bhopal News: मध्य प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम के पूर्व बिलिंग सहायक जागेश्वर प्रसाद अवधिया को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने बरी कर दिया है। यह फैसला 1986 में रिश्वत के एक मामले में आया था। निचली अदालत ने 2004 में उन्हें दोषी ठहराया था। हाई कोर्ट ने अपर्याप्त सबूतों के आधार पर यह फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि सिर्फ नोटों की बरामदगी दोष साबित करने के लिए काफी नहीं है।
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में मामले की कमजोर जांच पर प्रकाश डाला। अदालत ने स्पष्ट किया कि रिश्वत की मांग और स्वीकृति को संदेह से परे साबित होना चाहिए। यह मानक इस मामले में पूरा नहीं हुआ था। इस तरह लंबे समय बाद कानूनी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण बिंदु सामने आया है।
जागेश्वर प्रसाद अवधिया पर 1986 में 100 रुपये की रिश्वत लेने का आरोप लगा था। लोकायुक्त ने उन्हें फंसाने के लिए एक जाल बिछाया था। इस जाल में रासायनिक पाउडर लगे नोटों का इस्तेमाल किया गया था। अवधिया का दावा था कि नोट उनकी जेब में जबरन रखे गए।
इस घटना के बाद अवधिया को निलंबित कर दिया गया। उन्हें आधी तनख्वाह पर जीवन यापन करना पड़ा। इसने उनके परिवार की आर्थिक स्थिति पर गहरा प्रभाव डाला। करीब चार दशक तक चले मुकदमे ने उनके जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया।
अवधिया के बेटे अखिलेश ने बताया कि घटना के समय वह दसवीं कक्षा में थे। परिवार की माली हालत खराब होने के कारण उन्हें पढ़ाई के साथ काम करना पड़ा। उन्होंने छोटी-मोटी नौकरियां की ताकि घर का खर्च चल सके। शिक्षा और परिवार के जीवन स्तर पर इसका सीधा असर पड़ा।
पारिवारिक सदस्यों ने बताया कि आर्थिक तंगी के कारण बेटियों की शादी में भी मुश्किलें आईं। परिवार ने उनका साथ नहीं दिया। सबसे छोटे बेटे नीरज की पढ़ाई सबसे ज्यादा प्रभावित हुई। बेरोजगारी के कारण उसकी शादी भी नहीं हो सकी।
अब अवधिया की मुख्य मांग अपने छोटे बेटे के लिए नौकरी की है। वह चाहते हैं कि राज्य सरकार उनके साथ हुए अन्याय को स्वीकार करे। उनका कहना है कि मुआवजा या नौकरी से ही उनके परिवार के जख्म भर सकते हैं।
यह मामला भारतीय न्याय प्रणाली में देरी के गंभीर परिणामों को उजागर करता है। न्याय मिलने में लगने वाला लंबा समय आम आदमी के जीवन को गहराई से प्रभावित कर सकता है। इससे व्यक्ति का करियर, आर्थिक स्थिति और पारिवारिक जीवन बुरी तरह प्रभावित होता है।
अखिलेश अवधिया ने न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि भविष्य में किसी को ऐसी स्थिति का सामना न करना पड़े। नई भारतीय न्याय संहिता से पुराने तौर-तरीकों में बदलाव की उम्मीद है।
इस मामले ने एक बड़ा सवाल खड़ा किया है। क्या देर से मिला न्याय वास्तव में न्याय कहलाता है? जब तक फैसला आता है, तब तक व्यक्ति का जीवन बदल चुका होता है। समय की क्षति की भरपाई असंभव सी लगती है।
जागेश्वर प्रसाद अवधिया की कहानी कानूनी लड़ाई की वास्तविक कीमत को दर्शाती है। यह केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं है। यह उन सभी के लिए एक सबक है जो न्याय प्रणाली में सुधार की बात करते हैं। त्वरित और प्रभावी न्याय ही सच्चे न्याय की कसौटी हो सकती है।
