22.1 C
Delhi
गुरूवार, जून 1, 2023
spot_imgspot_img

संविधान के ‘बुनियादी ढांचे के सिद्धांत’ पर विवाद कितना सही, क्योंकि ये सिर्फ दस्तावेज़ नहीं बल्कि जीवन जीने का एक माध्यम है

Click to Open

Published on:

जब संविधान के ‘बुनियादी ढांचे के सिद्धांत’ पर विवाद छिड़ा हुआ है, तो ऐसे में ज़रूरी मालूम होता है कि इसकी मूल भावना और उसके उद्देश्य को आम लोगों तक ले जाया जाए क्योंकि जब तक ‘गण’ हमारे संविधान को नहीं समझेगा हमारा लोकतंत्र सिर्फ एक ‘तंत्र’ बनकर रह जाएगा.

Click to Open

हर वर्ष की भांति इस बार भी ज़ोर-शोर से आज गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है और मनाया भी जाना चाहिए. लेकिन उत्सव के इस माहौल में जो बात हम भूल जाते हैं या फिर जिस पर ज़्यादा बातचीत नहीं हो पाती या फिर सिर्फ गणतंत्र दिवस के आसपास ही होती है वो ये कि गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है?

इसका सीधा-साधा जवाब तो ये है कि गणतंत्र दिवस इसीलिए मनाया जाता है कि क्योंकि सन 1950 में इसी दिन भारत का संविधान लागू किया गया था. लेकिन बुनियादी सवाल ये है कि भारत का संविधान क्या है और इसमें ऐसी क्या विशेषताएं जिसका उत्सव मनाया जाए? और क्या सिर्फ उत्सव मनाना ही काफ़ी होगा और संविधान सिर्फ एक दस्तावेज़ मात्र है.

इस संदर्भ में संविधान सभा प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के इस कथन को याद रखना चाहिए. उन्होंने कहा था, ‘संविधान केवल वकीलों का दस्तावेज नहीं है बल्कि यह जीवन जीने का एक माध्यम है.’ लेकिन हक़ीक़त ये है कि संविधान लागू एवं क्रियान्वित होने के 74 वर्षों के बाद भी जीवन जीने का एक माध्यम बनना तो दूर की बात, ये आम लोगों तक भी नहीं पहुंच पाया है.

इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि देश की बड़ी आबादी संविधान ने निहित प्रावधानों, अवधारणों और अधिकारों से परिचित नहीं है. इनमे सिर्फ वो शामिल नहीं हैं, जिन्हे आमतौर ‘अनपढ़’ कहा और समझा जाता है बल्कि वो लोग भी जो अपने आपको पढ़ा लिखा और सजग नागरिक समझते हैं, उनकी भी संविधान की साक्षरता न के बराबर है.

पिछले साल कंस्टीटूशन कनेक्ट द्वारा स्कूलों में किए गए एक सर्वे के मुताबिक 93 स्कूलों में से सिर्फ 33 स्कूलों में संविधान की प्रस्तावना का पाठ होता है. हालांकि छात्र अपने राजीनीतिक विज्ञान के विषय में इसे जरूर पढ़ते हैं लेकिन यह दैनिक जीवन में अमल लाने के नज़रिये से नहीं होता.

संविधानिक साक्षरता पर काम करने वाली नागरिक संगठन ‘वी द पीपल’ अभियान द्वारा किए गए एक सर्वे से भी यह बात जाहिर होती है की संविधान के बारे में लोगों की जानकारी या तो न के बराबर है या बिल्कुल नहीं है.

इसकी वजह से कई समस्याएं उत्पन्न होती हैं, जिनमें से दो का ज़िक्र करना यहां आवश्यक मालूम होता है. इसका पहला दुष्प्रभाव तो ये है कि लोग संविधान के बारे में उन ग़लत जानकारियों और ख़बरों पर यक़ीन कर लेते हैं जिनका दूर-दूर तक संविधान और उसमे निहित प्रावधानों से कोई संबंध नहीं है.

इसका दूसरा बड़ा ख़ामियाज़ा ये है कि लोग अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं करते और न ही वो अपने संवैधानिक कर्तव्यों का सही से निर्वहन कर पाते हैं. ये दोनों चीज़े न सिर्फ किसी संविधान के लिए बल्कि देश के लोकतंत्र के लिए भी बहुत बड़ा ख़तरा है.

ऐसे में सवाल ये उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है और इससे निपटने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है? इसकी एक वजह तो ये मालूम होती है, जिसकी तरफ़ क़ानूनविद आईवर जेनिंग ने इशारा किया था.

उन्होंने कहा था कि भारतीय संविधान अपनी जटिल भाषा के कारण वकीलों का स्वर्ग है. दूसरे शब्दों में, आम लोगों के लिए इसे समझना बहुत मुश्किल काम है. जेनिंग की ये बात गलत नहीं थी. भाषाई जटिलता ने भारतीय संविधानिक मूल्यों और इसकी विषेशताओं से को लोगों से दूर रखा है.

लेकिन हाल के वर्षों में भारतीय संविधान ने इन जटिलताओं को पार करते हुए इसने आम लोगों के बीच जगह बनाई है जिसका श्रेय नागरिक और सामाजिक संगठनों को जाता है. राजस्थान और महाराष्ट्र में संविधान पर आम लोगों में अपना स्वामित्व क़ायम करने किए प्रक्रिया पर किए गए शोध से यह जाहिर होता है कि संविधान लोगों द्वारा न सिर्फ अपनाया जा रहा है बल्कि उन मूल्यों के जरिये नागरिक अधिकारों को मजबूत एवं नागरिक समस्याओं का समाधान भी लोगों द्वारा ढूंढा जा रहा है.

शोध और संविधान साक्षरता के लिए कार्यरत लोगों से साथ हमारे संवाद से यह स्पष्ट होता है कि आम लोगों ने भाषाई चुनौतियों को पार करते हुए संविधान को अपनाने के लिए एक नई भाषा गढ़ी है. यह भाषा उनकी अपनी भाषा है.

इस संदर्भ में महाराष्ट्र में ‘संविधान कट्टा’ जैसा पहल उल्लेखनीय है. संविधान के बारे में साक्षरता को लेकर काम करने वाले एवं ‘संविधान कट्टा’ शुरू करने वाले प्रवीण जाठर ने हमें बताया कि ‘कट्टा’ का मराठी में अर्थ होता है आम नागरिकों का सार्वजनिक स्थानों पर बैठने की जगह, जिसे उत्तर भारत में दालान या चौपाल कहते हैं. ये कट्टे खुले सार्वजनिक जगह होते हैं जहां कोई भी आकर बातचीत कर सकता है, यह एक खास प्रयोग है, जो आम बातचीत को संविधानिक बातचीत में तब्दील कर, संविधानिक मूल्यों को रोज़मर्रा की जिंदगी में शामिल करती है.

इस तरह के कई अनूठे प्रयोग न बढ़ती संविधानिक दिलचस्पी को दर्शाते हैं बल्कि एक नई संविधानिक भाषा भी गढ़ते हैं जो लोगों द्वारा बनाई गई हो. ऐसे कई उदाहरण महाराष्ट्र और राजस्थान के अलावा दूसरे राज्यों जैसे असम, मध्य प्रदेश, केरल, कर्नाटक, आदि में भी देखने को मिल रहे हैं.

लेकिन ये जो कुछ भी हो रहा है बहुत उत्साहवर्धक और प्रशंसनीय कदम होने के बावजूद बहुत कम है और इस मुहिम को तत्कालीन रूप से तेज़ करने की ज़रूरत है. अक्सर ये समझा जाता है जाता है कि अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद मात्र से आम लोगों के लिए संविधान को समझना और उसको अपनी ज़िंदगी गुज़ारने का तरीक़ा बनाना मुमकिन हो जाएगा.

इसमें कोई संदेह नहीं कि अनुवाद का काम बहुत अहम है लेकिन इस से सारे चुनौतियों का समाधान नहीं हो सकता. आम लोगों तक संविधान को पहुंचाने और रोज़मर्रा ज़िंदगी में इसके इस्तेमाल के नए-नए तरीक़े अपनाने होंगे. यहां ये याद रखना भी ज़रूरी है कि जो प्रयोग महाराष्ट्र या राजस्थान में सफल हो वही उत्तर प्रदेश या बिहार में कारगर रहे.

ऐसे समय में जब संविधान की आत्मा के रक्षा और उसके ‘बुनियादी ढांचे के सिद्धांत’ पर विवाद छिड़ा हुआ है, ये ज़रूरी मालूम होता है कि इसकी मूल भावना और उसके उद्देश्य को आम लोगों तक ले जाया जाए क्योंकि जब तक ‘गण’ हमारे संविधान को नहीं समझेगा हमारा लोकतंत्र सिर्फ एक ‘तंत्र’ बनकर रह जाएगा. फलस्वरूप संविधान विरोधी ताक़तों के लिए इसमें प्रतिगामी बदलाव लाना बहुत आसान हो जाएगा.

Click to Open
Latest news
Click to Openspot_img
Related news
Please Shere and Keep Visiting us.
Click to Open