Himachal Pradesh News: हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में आई हालिया प्राकृतिक आपदाओं को अक्सर जलवायु परिवर्तन का नतीजा बताया जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह एक सतही दृष्टिकोण है। इन त्रासदियों की जड़ में अनियोजित विकास और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ है। यदि विकास का मौजूदा मॉडल नहीं बदला गया, तो स्थिति और भयावह हो सकती है।
भारतीय मौसम विज्ञान सोसायटी के अध्यक्ष आनंद शर्मा कहते हैं कि पूर्वानुमान की तकनीक में काफी सुधार हुआ है। मगर चेतावनियों पर त्वरित कार्रवाई न होना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। केवल मौसम को दोष देना उचित नहीं है। असली विफलता विकास और योजना बनाने की प्रक्रिया में नजर आती है।
प्रकृति के नियमों की अनदेखी का नतीजा
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के आकलन के मुताबिक, हिमाचल और उत्तराखंड का 65-70% इलाका भूस्खलन के प्रति संवेदनशील है। हिमालय एक युवा और नाजुक पर्वत श्रृंखला है। इसकी भार वहन करने की क्षमता सीमित है। भारी निर्माण, जैसे चौड़ी सड़कें और बड़े बांध, इस प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहे हैं।
आईआईटी रुड़की के अध्ययन बताते हैं कि पहाड़ों पर सुरक्षित ढलान कोण 30 डिग्री से कम होना चाहिए। लेकिन अब सड़कें और जलविद्युत परियोजनाएं 45 डिग्री तक की ढलानों पर बनाई जा रही हैं। इससे भूस्खलन का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। नदियों के किनारे अतिक्रमण भी एक प्रमुख समस्या है।
बढ़ता दबाव और पर्यटन
हिमालयी क्षेत्र की नाजुक संरचना प्रति वर्ग किलोमीटर में केवल 65-70 परिवारों के दबाव को सह सकती है। आज यह दबाव कई क्षेत्रों में तीन से चार गुना अधिक हो चुका है। शिमला शहर इसका जीवंत उदाहरण है। शहर की वाहन क्षमता 85,000 लोगों की है, लेकिन पर्यटन सीजन में यहां रोजाना 2 लाख लोग आते हैं।
पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। हिमाचल में पिछले दशक में 1200 किलोमीटर से ज्यादा सड़कें चौड़ी की गईं। इससे हर साल करीब 2.5 करोड़ टन मलबा नदियों और ढलानों पर फेंका गया। उत्तराखंड की चारधाम परियोजना में 50,000 पेड़ काटे गए। इन सभी कारकों ने पहाड़ों पर दबाव बढ़ाया है।
भविष्य के लिए जरूरी कदम
विशेषज्ञों का सुझाव है कि नदी-नालों का जोखिम आकलन अनिवार्य करना होगा। टोपोग्राफिकल मानचित्रों के आधार पर निर्माण प्रतिबंधित क्षेत्र तय करने होंगे। नो-कंस्ट्रक्शन जोन का सख्ती से पालन कराना होगा। पुराने अतिक्रमण हटाकर प्राकृतिक जल निकासी तंत्र को फिर से बहाल करना जरूरी है।
चेतावनी प्रणालियों को मजबूत करना एक और महत्वपूर्ण कदम है। मोबाइल नेटवर्क के अलावा हैम रेडियो और कम्युनिटी रेडियो को भी जोड़ा जाना चाहिए। ताकि संचार के अन्य साधन विफल होने पर भी चेतावनियां लोगों तक पहुंच सकें। आपदा प्रबंधन की ट्रेनिंग गांव स्तर तक पहुंचानी होगी।
इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास से पहले भूगर्भीय और पारिस्थितिकीय स्थिरता का परीक्षण अनिवार्य करना होगा। जलवायु परिवर्तन को बहाना बनाकर जिम्मेदारी से बचने की प्रवृत्ति को खत्म करना होगा। एक मजबूत जवाबदेही तंत्र स्थापित करना समय की मांग है। केवल तभी हिमालय को भविष्य की आपदाओं से बचाया जा सकता है।
