Himachal News: प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक दोषी को सजा अवधि पूरी होने के बावजूद गलत तरीके से जेल में रखने पर कड़ी नाराजगी जताई है। न्यायालय ने राज्य सरकार को याचिकाकर्ता को एक लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया है। न्यायाधीश अजय मोहन गोयल ने यह फैसला रामलाल द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनाया। अदालत ने इस कार्रवाई को संविधान के अनुच्छेद 21 का सीधा उल्लंघन बताया।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता को जेल से रिहा न करना पूरी तरह से अवैध और अनुचित था। सरकार ने स्वयं ही उसे छह जनवरी 2025 को समय से पहले रिहा करने का आदेश जारी किया था। उसके बाद की हिरासत को अदालत ने पूरी तरह से गैरकानूनी करार दिया। इस फैसले ने नागरिक अधिकारों और कानूनी प्रक्रिया की सुरक्षा पर महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है।
मामले की पृष्ठभूमि
रामलाल को बीस अप्रैल दो हजार के एक फैसले में आईपीसी की धारा तीन सौ दो के तहत दोषी ठहराया गया था। उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। बाद में सत्रह मई दो हज़ार तेरह को पैरोल उल्लंघन के एक अन्य मामले में उसे दोषी पाया गया। इसके लिए उसे एक वर्ष के कठोर कारावास और पांच सौ रुपये जुर्माने की सजा मिली।
जुर्माना न भरने की स्थिति में एक माह के अतिरिक्त साधारण कारावास का प्रावधान भी था। यह एक वर्ष की सजा उसकी आजीवन कारावास की सजा के साथ ही पूरी हो गई थी। इसके पश्चात सरकार ने उसे समय से पूर्व रिहा करने के आदेश पारित कर दिए थे। फिर भी उसे जेल से रिहा नहीं किया गया।
अदालत की तीखी प्रतिक्रिया
उच्च न्यायालय ने कहा कि यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि याचिकाकर्ता को रिहा न करना अवैध था। यह कार्य भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का स्पष्ट उल्लंघन है। अदालत ने जोर देकर कहा कि समयपूर्व रिहाई का आदेश मिलने के बाद उसे तत्काल रिहा किया जाना चाहिए था। कोर्ट ने इस मामले को बहुत ही संकीर्ण दायरे का बताया।
न्यायालय ने सरकारी विभाग को निर्देश दिया है कि वह याचिकाकर्ता को उसके कष्टों के लिए मुआवजे के रूप में एक लाख रुपये का भुगतान करे। यह फैसला जेल प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही का एक महत्वपूर्ण संदेश देता है। यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के प्रति न्यायपालिका की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
सजा की गणना और रिहाई
याचिकाकर्ता ने अपनी सभी सजाएं पूरी कर ली थीं। पैरोल उल्लंघन की एक वर्ष की सजा भी आजीवन कारावास के साथ समाप्त हो चुकी थी। सरकार ने भी इस बात को स्वीकार करते हुए उसे समय से पूर्व रिहा करने का आदेश जारी कर दिया था। इसके बावजूद जेल प्रशासन ने उसे रिहा नहीं किया।
प्रशासन ने रिहा न करने का कारण यह बताया कि उसे एक अन्य मामले में एक वर्ष का कारावास और भुगतना था। उच्च न्यायालय ने इस तर्क को पूरी तरह से खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि यह दलील पूरी तरह से अवैध और अनुचित है। इस तरह की कार्रवाई से नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन होता है।
संवैधानिक अधिकारों का हनन
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण और दैहिक स्वतंत्रता की रक्षा का अधिकार देता है। इस मामले में अदालत ने पाया कि यह अधिकार सीधे तौर पर भंग हुआ है। कानूनी प्रक्रिया का पालन न करना एक गंभीर चूक थी। न्यायालय ने इस चूक के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया है।
यह फैसला सरकारी विभागों के लिए एक चेतावनी के रूप में काम करेगा। यह सुनिश्चित करेगा कि भविष्य में इस तरह की मनमानी न हो। कानून का शासन बनाए रखने और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए ऐसे फैसले अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह मामला न्यायिक निगरानी के महत्व को रेखांकित करता है।
मुआवजे का महत्व
मुआवजेकी राशि न्यायिक हस्तक्षेप का एक प्रतीकात्मक पहलू है। इसका उद्देश्य पीड़ित पक्ष को कुछ राहत प्रदान करना है। साथ ही यह सरकारी तंत्र के लिए एक संदेश भी है। अदालत ने स्पष्ट किया कि गलती स्वीकार करने के बावजूद क्षतिपूर्ति आवश्यक है। यह भविष्य में ऐसी गलतियों को दोहराए जाने से रोकने का एक उपाय है।
यह फैसला दर्शाता है कि न्यायपालिका आम आदमी के अधिकारों के प्रति कितनी सजग है। यह मामला कानून के शासन और प्रशासनिक जवाबदेही का एक उदाहरण बन गया है। इससे यह सबक मिलता है कि कानूनी प्रक्रियाओं का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। सजा की अवधि पूरी होने के बाद रिहाई एक मौलिक अधिकार है।
