Himachal News: हिमाचल प्रदेश में नशा अब गंभीर मानसिक समस्या पैदा कर रहा है। इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज के मनोरोग विभाग में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। हर सप्ताह यहां आने वाले पंद्रह सौ मरीजों में से पचास नशे के शिकार होते हैं।
इनमें से पच्चीस मामले चिट्टा यानी हेरोइन के होते हैं। बाकी पच्चीस भांग या अफीम जैसे पारंपरिक नशों के आदी होते हैं। यह समस्या अमीर और गरीब सभी वर्गों में देखी जा रही है। युवक और युवतियां दोनों ही इसकी गिरफ्त में आ रहे हैं।
अस्पताल में नशामुक्ति के लिए केवल दस बिस्तर
बढ़ते मरीजों के सामने अस्पताल की व्यवस्था चुनौतीपूर्ण है। मनोरोग विभाग में नशामुक्ति के लिए सिर्फ दस बिस्तर उपलब्ध हैं। यह संख्या अब बिल्कुल अपर्याप्त साबित हो रही है। वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक डॉक्टर राहुल राव ने आश्वासन दिया है।
उन्होंने कहा कि प्रशासन जल्द ही अतिरिक्त बिस्तरों का प्रबंध करेगा। अस्पताल पहुंचने वाले अधिकतर मरीज स्वयं इलाज कराना चाहते हैं। उनमें या उनके परिवार में सुधार की इच्छाशक्ति मजबूत होती है। ऐसे मरीजों पर विभाग विशेष ध्यान दे रहा है।
मनोरोग विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर दिनेश दत्त शर्मा ने एक बात स्पष्ट की। उन्होंने कहा कि लत छोड़ने के लिए मरीज और परिवार की दृढ़ इच्छा सबसे जरूरी है। बिना इस इच्छाशक्ति के उपचार का असर सीमित रह जाता है।
काउंसिलिंग और समूह चिकित्सा से होता है इलाज
चिकित्सक मरीजों की काउंसिलिंग पर विशेष जोर देते हैं। वे अलग-अलग समूह बनाकर व्यक्तिगत परामर्श देते हैं। इससे मरीजों का मनोबल बढ़ाने में मदद मिलती है। वे लत छोड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो पाते हैं।
परिवार के सदस्यों को भी अलग से शिक्षित किया जाता है। उन्हें समझाया जाता है कि लत दोबारा लग सकती है। इसलिए मरीज की निरंतर निगरानी और सहयोग जरूरी है। परिवार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।
योग और ध्यान के माध्यम से जीवनशैली बदलने की सलाह दी जाती है। इन व्यावहारिक तरीकों से नशे से आजादी पाने में मदद मिलती है। मरीजों को नई दिनचर्या अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
मरीजों के सामने नहीं लानी चाहिए ये चीजें
विशेषज्ञ एक महत्वपूर्ण सुझाव देते हैं। नशे के आदी मरीजों के सामने चिट्टा का नाम नहीं लेना चाहिए। सिरिंज की तस्वीरें या सफेद पाउडर जैसी वस्तुएं भी नहीं दिखानी चाहिए। ये चीजें उन्हें दोबारा नशा करने के लिए उकसा सकती हैं।
कई मरीज उपचार के दौरान अलग वार्ड में रहने की मांग करते हैं। उनका तर्क होता है कि वे मनोरोगी नहीं हैं। वे सिर्फ एक लत के शिकार हैं। यह बात इस समस्या के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण की जरूरत बताती है।
नशा मुक्ति एक लंबी और चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया है। इसमें चिकित्सक, परिवार और मरीज तीनों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है। अस्पताल इस दिशा में पूरी कोशिश कर रहा है। लेकिन संसाधनों की कमी एक बड़ी बाधा है।
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि नशे की समस्या गहराती जा रही है। यह केवल कानूनी मामला नहीं रह गया है। यह एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती बन चुकी है। समय रहते इस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है।
