आरक्षण जाति के नाम पर या जाति के नाम पर आरक्षण की मांग देश को कई बार झकझोरती आई है। भारत में मानव श्रेणी को जातियों एवं उपजातियों मे बांटने वाले पूर्वज भी इस बात के दोषी हैं कि ईश्वर ने समस्त प्राणियों में एक मानव प्रजाति भी बनाई है, लेकिन मानवों ने स्वय इंसानों को ही जातियों में बाँट दिया। प्राचीन काल से ही भारतीय स्भ्यता में जातिवाद हावी रहा। कुछ जातियाँ अपने आप को ऊंचा दिखाने की होड़ लगी रही तो कुछ अपने को निम्न श्रेणी से ऊंचा दिखाने की होड में लग गई। जिस तरफ पलड़ा भारी दिखा राजनीती भी उसी दिशा में चलती गई।
जाति सत्ता हथियाने का हथियार बन गई। पंचायत से लेकर सांसद तक के चुनावों में जातिवाद हावी रहता है, आज जिस आरक्षण को लेकर देश के कई राज्यों मे हिंसा, तनाव, उपद्रव, आगजनी से देश की करोडों कि संपत्ति नष्ट हो जाती है। इसका मुख्य कारण देश में जातिवाद ही है। हिन्दू धर्म में अगर एक ही जाति होती तो देश मे आरक्षण जैसे मुद्दो का कोई महत्व न होता जातियों के नाम पर देश बंटता नहीं।
आज जरूरत है देशभर में राजस्व रिकॉर्ड से जातियों व उपजातियों को मिटा देने की। इंसान मात्र नाम से ही जाना जाए न की जाति से। आज देश मे ऐसे कानून की जरूरत है कि अपने नाम के आगे कोई भी जातिसूचक शब्द न लगाया जाए। इस पर देश के समस्त वर्गो को सहमत होना पड़ेगा, तभी देश आंतरिक कलह से सुरक्षित रह सकता है। मात्र गरीब पहचाना जाए कोई अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग, सामान्य वर्ग नहीं रहेगा । एक वर्ग होगा और वो होगा मानव वर्ग।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार “कानून के समक्ष समानता” के अधिकार का उस समय उलंघन हो जाता है। जब सरकार खुद जाति आधारित कल्याण बोर्ड बना कर जातीय व्यवस्था को बढ़ावा दे देती है। अन्य पिछड़ा वर्ग कल्याण बोर्ड, व्राह्मण कल्याण बोर्ड, कबीर पंथी कल्याण बोर्ड, वाल्मीकि कल्याण बोर्ड, गद्दी गुज़र कल्याण बोर्ड, धीमान कल्याण बोर्ड आदि। भविष्य में खत्री कल्याण बोर्ड, घृत कल्याण बोर्ड, जात कल्याण बोर्ड आदि की मांग शुरू हो जाएगी और फिर सबका कल्याण हो जाएगा।
कल्याण करने के लिए फिर सरकार के पास कुछ भी नहीं बचेगा। ऐसे बोर्ड जो जाति विशेष समूह को महत्व देने से राष्ट्रिय एकता को खतरा उत्पन्न हो सकता है। कल्याण जाति विशेष या वर्ग विशेष का न होकर समस्त मानव वर्ग का होना चाहिए। कोई भी मानव गरीब हो सकता है, समाज को सरकार को उसके कल्याण के बारे में सोचना चाहिए।
सरकारी कार्यालयों मे लगे अधिकारियों की नाम पटिका से जातिसूचक शब्द को हटा देना चाहिए। आरक्षण जैसे मुद्धों के देश में फैलने पर जनता को दोषी ठहराया है। लेकिन सरकारी कार्यालयों में या सरकारी तौर पर सरकार ने कभी जाति व्यवस्था पर अंकुश लगाने कि कभी कोशिश नहीं की। इससे यह सिद्ध होता है कि सरकार स्वयंम जाति व्यवस्था के पक्ष में है।
जो हमारे देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है, आज की जरूरत है कि संकीर्ण विचारधारा से ऊपर उठने की। सारे देशवासियों को मिलाकर जातिवाद को समाप्त कर एक सूत्र में बंधने की, जिससे आरक्षण जैसे शब्दो को मिटाया जा सके। सरकारी स्तर पर जाति विशेष पर आधारित महापुरुषों के नाम की छुट्टियां समाप्त की जानी चाहिए। महापुरुषों का इतिहास भले ही किताबों में पढ़ाया जाए। उनके आदर्शों का पालन किया जाए। लेकिन सरकारी अवकाश जाति विशेष के महत्व को दर्शाने के लिए हो, यह सरकारी स्तर पर बंद होना चाहिए वैसे भी जो महापुरुष होता है वो समस्त भारत का होता है न कि किसी एक विशेष जाति समुदाए का नहीं।
कई बार देखा जाता है कि वर्ग विशेष किसी महापुरुष पर अधिकार तो रखता है लेकिन उनके आदर्शों उनकी शिक्षाओं का अनुसरण नहीं करता। बल्कि अन्य समुदाय उस महापुरुष की शिक्षाओं को अपने जीवन में अपनाते हैं। महापुरुषों के नाम पर सरकारी अवकाश नहीं बल्कि सरकारी काम होने चाहिए। महापुरुष तो हमेशा काम में व्यस्त रहे, लेकिन हम उनके नाम पर अवकाश करके सरकारी कामकाज को रोक देते हैं तो उनकी आत्मा को सुकून नहीं मिलता होगा। आराम करके कोई महापुरुष नहीं बनता। काम करके ही महापुरुष कहलाए जाते हैं। महापुरुषों के नाम पर काम रोक कर हम महापुरुषों का सम्मान नहीं बल्कि अपमान करते हैं। धर्म पर आधारित जो त्यौहार होते हैं, वे देश की संस्कृति से जुड़े है। उनपर अवकाश होना अलग बात है।
आज देश के लोगो के साथ-साथ सरकारों को भी जाति-व्यवस्था के कारण मानवता एवं देश को हो रहे नुकसान पर चिंतन करने की आवश्यकता है। देश की सभी नागरिकों को जातिविहीन समाज के पक्ष मे अपनी सहमति देनी चाहिए। तभी धर्म के साथ साथ आने वाली पीड़ियों की सुरक्षा की कल्पना की जा सकती है।