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शनिवार, जून 3, 2023
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भाजपा ने 2022 में सबकुछ छीना, आरजेडी में नही मिल रही जगह, जानें मुकेश साहनी 2024 में क्या करेंगे

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Bihar News: नदियों के किनारे पारंपरिक पेशे से जीवन बसर करने वाली निषाद जातियों के बिहार में स्वघोषित सन ऑफ मल्लाह मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले दोराहे पर है। मुकेश सहनी मन नहीं बना पा रहे हैं कि वो महागठबंधन के साथ रहकर चुनाव लड़ें या फिर बीजेपी का हाथ पकड़ एनडीए में वापसी कर लें। राजनीतिक तौर पर सहनी एक ऐसे नेता के तौर पर उभरे हैं जो किसी भी वक्त हाथ पकड़ और छोड़ सकता है। 2020 के विधानसभा चुनाव में वो तेजस्वी यादव की उस पीसी से निकलकर बीजेपी के पास चले गए थे जिसमें सीट शेयरिंग का ऐलान हो रहा था।

बिहार में जो माहौल है उसके हिसाब से तेजस्वी यादव की आरजेडी, नीतीश कुमार की जेडीयू, कांग्रेस, लेफ्ट और जीतनराम मांझी की हम महागठबंधन में रहकर 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ सकती है। बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए में चिराग पासवान और पशुपति पारस की अगुवाई वाले लोजपा के दोनों धड़ों के साथ ही उपेंद्र कुशवाहा की आरएलजेडी भी नजर आ रही है। बिहार के बड़े जातीय नेताओं में बस मुकेश सहनी ही बचे हैं जिनका लाइन-लेंथ अभी तक तय होता नहीं दिख रहा है। बाकी सब टीम में सेट दिख रहे हैं।

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ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर: महागठबंधन और बीजेपी के साथ चुनाव लड़ चुके हैं मुकेश सहनी

मुकेश सहनी को सबक दोनों गठबंधन से मिले हैं। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि मुकेश सहनी को किसी से वैर नहीं है। उनके दरवाजे सबके लिए खुले हैं। 2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी से उनको मान-सम्मान नहीं मिला या यूं कहें कि सम्मान भर सीटें नहीं मिलीं। मुकेश सहनी बीजेपी के साथ गए तो मुंह ऐसा जला कि अब पानी भी फूंक-फूंक कर पीने लगे हैं। मुकेश सहनी के राजनीतिक व्यवहार को देखने से यह तो साफ है कि वो करेंगे वही जिसमें उनका और उनकी पार्टी वीआईपी का फायदा हो। जिस गठबंधन में ज्यादा सीट मिले, मुकेश सहनी उसकी तरफ झुक सकते हैं।

मुकेश सहनी 2018 से पहले बीजेपी के लिए फ्रीलांस नेता के तौर पर काम कर रहे थे। बीजेपी ने जरूरत के हिसाब से मुकेश सहनी का 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनाव में इस्तेमाल किया। बाद में सहनी का बीजेपी से मोहभंग हो गया क्योंकि मल्लाह जाति को एससी का दर्जा नहीं मिला। 2018 में सहनी ने अपनी पार्टी वीआईपी बना ली। फिर 2019 का लोकसभा चुनाव महागठबंधन के साथ लड़े। 3 सीट मिली थी लेकिन तीनों हार गए। सहनी खुद खगड़िया सीट से ढाई लाख के मार्जिन से लोजपा के महबूब अली कैसर से हार गए थे। मधुबनी और मुजफ्फरपुर में वीआईपी के कैंडिडेट 4 लाख से ज्यादा के अंतर से हारे।

ना लोकसभा जीते, ना विधानसभा फिर भी सन ऑफ मल्लाह मुकेश सहनी के हौसले बुलंद

फिर आया 2020 का विधानसभा चुनाव। मुकेश सहनी महागठबंधन में ही थे लेकिन सीट पर बात नहीं बनी और तेजस्वी यादव की प्रेस कॉन्फ्रेंस में बगावत का झंडा बुलंद कर मुकेश सहनी एनडीए में चले गए। बीजेपी ने 11 सीटें देकर वीआईपी को लड़ाया और मुकेश सहनी को पूरे बिहार घुमाया। वीआईपी के कैंडिडेट इस बार 4 सीट पर जीत गए लेकिन मुकेश सहनी खुद इस बार भी हार गए। बीजेपी ने मुकेश सहनी को 6 साल कार्यकाल वाली सीट के बदले डेढ़ साल बचे टर्म वाली विधान परिषद सीट से एमएलसी बनाया और नीतीश सरकार में मंत्री भी बनवाया।

फिर सहनी बीजेपी से ही लड़ने लगे। बिहार में स्थानीय निकाय की 24 एमएलसी सीट का चुनाव वो एनडीए के खिलाफ लड़ गए जब उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। एनडीए में बीजेपी 12, जेडीयू 11 और पशुपति पारस की रालोजपा 1 सीट पर लड़ी। सहनी लड़ने लगे थे। तो लड़ते-लड़ते बीजेपी से लड़ने उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव में पहुंच गए। फिर बीजेपी हिसाब बराबर करने लगी।

बीजेपी ने 2020 में मुकेश सहनी को 11 सीट दी, 2022 में सारे विधायक छीन लिए

पहले तो मार्च में ही वीआईपी के बचे हुए तीन विधायकों को बीजेपी ने शामिल कर विधानसभा से वीआईपी का नाम कटवा दिया। तीनों विधायकों ने तब कहा कि वो बीजेपी के नेता थे, सीट शेयरिंग में सीट वीआईपी को गई थी तो पार्टी के कहने पर वीआईपी से लड़े थे और अब वापस अपने घर लौट आए हैं।

फिर सहनी की पार्टी के चौथे विधायक मुसाफिर पासवान के निधन से खाली हुई बेचहां सीट पर बीजेपी ने कैंडिडेट दे दिया। सहनी का कैंडिडेट भी बोचहां से लड़ गया। बीजेपी और मुकेश सहनी की लड़ाई में सीट आरजेडी ने निकाल ली जिसने दिवंगत एमएलए मुसाफिर पासवान के बेटे अमर पासवान को कैंडिडेट बना लिया था।

पटना के राजनीतिक गलियारों में मुकेश सहनी का भाव बीजेपी दरबार में ज्यादा चल रहा है और वो एनडीए की तरफ झुके हुए बताए जाते हैं। फरवरी में मुकेश सहनी को केंद्र सरकार की तरफ से वाई प्लस कैटगेरी की सुरक्षा दी गई है जो इशारा करता है कि उनकी पार्टी और बीजेपी के बीच की कड़वाहट खत्म हो चुकी है। 2014 के चुनाव में बीजेपी बिहार की 30 लोकसभा सीट लड़ी और 22 जीती थी। तब रामविलास पासवान की लोजपा 7 लड़कर 6 जीती थी और उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा 3 सीट लड़ी और तीनों जीती थी। 2019 के चुनाव में बीजेपी और जेडीयू 17-17 और लोजपा 6 सीट लड़ी थी। जेडीयू की एक सीट छोड़ एनडीए को 39 सीट पर जीत मिली थी।

मुकेश सहनी को चिराग पासवान की पार्टी से एक लोकसभा सीट कम मंजूर नहीं

बीजेपी ने 2024 के चुनाव में 30 से 32 लोकसभा सीट लड़ने का मन बना रखा है। मुकेश सहनी को एडजस्ट नहीं करना होता तो एनडीए गठबंधन में सीट बंटवारे में बहुत मुश्किल भी नहीं होती। बीजेपी थोड़ी उदारता दिखाकर 2014 का फॉर्मूला लगा देती या फिर सख्ती से गठबंधन करती तो पासवान को 5 और कुशवाहा को 2 सीट देकर खुद 32 लड़ लेती। लेकिन सहनी को साथ लाना है, लड़ाना है तो सीट तो देना होगा। 

सूत्रों का कहना है कि मुकेश सहनी ने बीजेपी के सामने दो शर्त रखी है। एक तो उनको चिराग पासवान की पार्टी से कम सीट नहीं चाहिए। जितनी सीट बीजेपी चिराग को दे, उनको भी उतनी ही सीट चाहिए। दूसरी बात कि सीटें 3 से कम नहीं हों, जितनी उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन ने दी थी। 

बिहार में साहनी, निषाद, बिंद और गंगोट जैसी दो दर्जन मल्लाह जाति-उपजाति हैं जिनका एकमात्र नेता होने का दावा मुकेश सहनी करते हैं। दावे की मजबूती के लिए उन्होंने खुद को सन ऑफ मल्लाह उपाधि दे रखी है। अनुमान के मुताबिक बिहार में मल्लाहों की आबादी 8-10 फीसदी है। जिन इलाकों में नदियां, तालाब व पोखरे हैं वहां मल्लाह ज्यादा हैं। इस हिसाब से उत्तर बिहार के कई इलाकों में मुकेश सहनी का प्रभाव ज्यादा माना जा सकता है।

जातीय वोट शेयर में मुकेश सहनी का पलड़ा भारी लेकिन बीजेपी के सामने कितना वजन?

जातीय वोट शेयर के हिसाब से बात करें तो मुकेश सहनी का वजन चिराग पासवान या उनके चाचा पशुपति कुमार पारस और उपेंद्र कुशवाहा से ज्यादा है। बिहार में पासवान और कुशवाहा दोनों जातियों के वोट 6 परसेंट रहने का अनुमान है। इसलिए वोट शेयर में पासवान और कुशवाहा पर भारी मुकेश सहनी एनडीए के सीट बंटवारे में वीआईपी को कोई नुकसान नहीं चाहते हैं। इसलिए मुकेश सहनी कह रहे हैं कि वीआईपी की सीटें चिराग पासवान की लोजपा-रामविलास से कम ना हों।

अस संकट बीजेपी के सामने है कि कैसे वो बिहार में 30-32 सीट लड़े और चिराग पासवान, पशुपति पारस, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी को साथ भी रखे। 10 सीट में इन चार नेताओं को मनाना आसान काम नहीं है और इससे नीचे बीजेपी जाना नहीं चाहती क्योंकि छोटे दलों के त्रिशंकु सदन बनने पर भटकने का खतरा भी रहता है। मुकेश सहनी तो 2020 में महागठबंधन के संवाददाता सम्मेलन में पाला बदलकर अपनी चंचलता जाहिर कर ही चुके हैं।

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