Kabul News: अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान सरकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बगराम एयरबेस पर दावे को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जाकिर जलाल ने सोशल मीडिया पर वीडियो जारी कर कहा कि अफगानिस्तान की धरती पर अमेरिकी सेना की वापसी की कोई अनुमति नहीं दी जाएगी। हालांकि उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक संबंध बनाए रखने की इच्छा जताई।
ट्रंप की मांग और तालिबान की प्रतिक्रिया
राष्ट्रपति ट्रंप ने गुरुवार को ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर के साथ संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में बगराम एयरबेस वापस पाने की इच्छा व्यक्त की थी। ट्रंप का तर्क था कि यह एयरबेस चीन के परमाणु हथियार बनाने वाली सुविधाओं के नजदीक होने के कारण रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है । उन्होंने दावा किया कि अमेरिका ने यह एयरबेस तालिबान को “मुफ्त में दे दिया” था।
तालिबान प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने ट्रंप के दावों का खंडन करते हुए स्पष्ट किया कि बगराम पर इस्लामिक अमीरात का नियंत्रण है न कि चीन का। उन्होंने कहा कि चीनी सैनिक यहां मौजूद नहीं हैं और न ही तालिबान का किसी देश के साथ ऐसा कोई समझौता है।
बगराम एयरबेस का रणनीतिक महत्व
बगराम एयरबेस अफगानिस्तान का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा है जो राजधानी काबुल से 44 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। यह परवान प्रांत में सामरिक महत्व वाले क्षेत्र में स्थित है जिसे अफगानिस्तान के बड़े हिस्से को नियंत्रित करने की चाबी कहा जाता है। अमेरिका ने सितंबर 2001 के हमलों के बाद इस एयरबेस पर कब्जा कर लिया था।
दो दशक तक यह अमेरिकी सेना का प्रमुख ठिकाना रहा जहां अमेरिका ने 77 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में इसका विस्तार किया। साल 2021 में अमेरिकी सेना की वापसी के बाद तालिबान ने इस पर फिर से नियंत्रण स्थापित कर लिया। इस एयरबेस में एक कुख्यात जेल भी है जहां अमेरिका ने हजारों लोगों को बिना आरोप के कैद रखा था।
चीन से संबंधित सुरक्षा चिंताएं
ट्रंप प्रशासन की मुख्य चिंता बगराम एयरबेस का चीन के निकट होना है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने दावा किया कि यह एयरबेस चीन के परमाणु हथियार बनाने वाली सुविधाओं से मात्र एक घंटे की दूरी पर स्थित है। इस कारण अमेरिका के लिए इसका रणनीतिक महत्व और बढ़ जाता है।
ट्रंप और उनके वरिष्ठ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिकारियों का मानना है कि इस बेस की चीन पर नजर रखने, अफगानिस्तान के खनिज संसाधनों तक पहुंच, आईएसआईएस को निशाना बनाने और राजनयिक सुविधा फिर से खोलने के लिए आवश्यकता है। हालांकि तालिबान ने चीन की मौजूदगी के सभी दावों का खंडन किया है।
अमेरिका-तालिबान संबंधों का इतिहास
अमेरिका और तालिबान के बीच संबंध हमेशा से तनावपूर्ण रहे हैं। 2001 में अमेरिका ने अलकायदा को शरण देने के कारण तालिबान शासन पर हमला किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने इसे “आतंकवाद के खिलाफ युद्ध” करार दिया था।
2017 में राष्ट्रपति बनने से पहले ट्रंप ने अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी का वादा किया था। उन्होंने अमेरिका और तालिबान के बीच नौ दौर की वार्ता की कोशिशें कीं, लेकिन अंततः इन वार्ताओं को मृत घोषित कर दिया। ट्रंप का मुख्य उद्देश्य अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान से बाहर निकालना था ।
वर्तमान राजनीतिक संदर्भ
तालिबान के 2021 में सत्ता में वापसी के बाद से अफगानिस्तान गंभीर आर्थिक संकट, अंतरराष्ट्रीय मान्यता की कमी, आंतरिक कलह और प्रतिद्वंद्वी आतंकवादी समूहों से जूझ रहा है। इन चुनौतियों के बावजूद तालिबान ने अमेरिकी सेना की वापसी के प्रस्ताव को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया है।
अफगान विदेश मंत्रालय ने जोर देकर कहा कि वे अमेरिका के साथ संबंध बनाए रखना चाहते हैं, लेकिन यह संबंध “आपसी सम्मान और बराबरी की भावना” के आधार पर होंगे। इससे स्पष्ट है कि तालिबान किसी भी प्रकार की सैन्य उपस्थिति को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं
ट्रंप के बयान ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय में चिंता पैदा की है। विशेषज्ञों का मानना है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति की वापसी क्षेत्रीय स्थिरता को प्रभावित कर सकती है। चीन ने अभी तक इस मामले पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है।
तालिबान के फैसले ने अफगानिस्तान की संप्रभुता और स्वतंत्र नीति निर्धारण के अधिकार को रेखांकित किया है। यह घटना अंतरराष्ट्रीय संबंधों में छोटे देशों की बढ़ती सक्रियता और महत्वाकांक्षाओं को भी दर्शाती है। भविष्य में इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक समीकरण कैसे विकसित होंगे, यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
